शनिवार, 11 जनवरी 2014

किरचॉफ का नियम

                          किरचॉफ का नियम

इतिहास

सन् 1842 में किरचॉफ ने जटिल विद्युत परिपथों (Circuits) में कई चालकों (wire) के मध्य धारा के वितरण की जानकारी के लिए दो नियमों को प्रकाशित किया था । ये दोनों नियम क्रमशः 'प्रथम नियम' और 'द्वितीय नियम'  के नाम से जाना जाता है ।


किरचॉफ का प्रथम नियम


'किसी भी विद्युत परिपथ में किसी भी बिन्दु या सन्धि पर मिलने वाली धाराओं का बीजगणितीय योग (algebraic sum) शून्य होगा ।'
संक्षिप्त रूप में,
                         i = 0
इसे किरचॉफ का 'सन्धि नियम' या 'बिन्दु नियम' भी कहते है  । 

प्रथम नियम को लगाने कि विधि


किसी विद्युत परिपथ में प्रथम नियम को लगाते समय यह ध्यान देना है कि,किसी बिन्दु की ओर आने वाली धाराओं को धनात्मक (+) लेते है तथा बिन्दु से दूर जाने वाली धाराओं को ऋणात्मक (-) लेते है ।

चित्र से
            i1 + i2 + i3 - i4 - i5 - i6 - i7 - i8 = 0 (किरचॉफ के प्रथम नियम से)
OR
            i1 + i2 + i3 = i4 + i5 + i6 + i8 (क्योंकि बराबर के दायें या बायें करने से चिह्न बदलता है ।)
इससे स्पष्ट है कि सन्धि की ओर आने वाली धाराओं का योग संधि  से दूर जाने वाली धाराओं के योग के बाराबर है,अर्थात् जब धारा बहती है तो सन्धि पर न आवेश संचित होता है और न ही कोई आवेश हटाया जाता है । इसी कारण किरचॉफ के प्रथम नियम को उर्जा संरक्षण का नियम भी कहते हैं । (आवेश प्रवाह ही दर को धारा कहते हैं और धारा को अग्रेजी के छोटे अक्षर आई (i) से दिखाते हैं ।)

किरचॉफ का द्वितीय नियम



'किसी विद्युत परिपथ के प्रत्येक बंद पाश में बहने वाली धाराओं तथा उसके संगत प्रतिरोधों के गुणनफल का बीजगतीय योग परिपथ में लगने वाले विद्युत वाहक बलों के बीजगणितीय योग के बराबर होता है ।'
 संक्ष्‍िाप्त में,
                                                               ∑iR = ∑E

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